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साढ़े चार सौ किलोमीटर प्रति घंटे की तूफानी रफ़्तार, और आसमान में धूल का गुबार उड़ाती हुई, दनदनाती हुई, दिल्ली से मुम्बई, लगभग तेरह सौ पिच्चासी किलोमीटर का सफर और वह भी सिर्फ चार घंटों में…
क्या ये कोई दिवा स्वप्न है या फिर कोई मरीचिका… जी हाँ यहाँ ज़िक्र हो रहा है देश की बहु प्रतीक्षित परियोजना “बुलेट ट्रैन” का|
यकायक कुछ शोर सा सुनाई दिया और में नींद से जागा, मेरा स्वप्न टूट चूका था| घर से बहार निकल कर देखा तो पाया की कुछ दूरी पर कुछ औरते आपस में झगड़ रही थीं| इस शोर शराबे में थोड़ा पास जाने पर पता चला की दरअसल ये औरतें पीने का पानी भरने वाले नल के स्वामित्व लिए लढ रही थी|
मन ही मन मै मुस्कुराया… अभी अभी जो दिवा स्वप्न मै देख रहा था उसकी इस तरह धज्जिया उड़ते और पहले ही ट्रायल रन में बुलेट ट्रैन को डी-रेल होते देख मन थोड़ा विचलित हो उठा|
मन में कई प्रकार के प्रश्न उठ रहे थे और उनके उत्तर जानने की जिज्ञासा मानो निरंतर बढ़ती ही जा रही थी| कौन हे ये लोग… और ये क्यों इस प्रकार पानी के लिए लढ़ रहे है… क्या इनके पास पीने के लिए पानी नहीं है… और क्या ये एक ही नल है यहाँ… वगेरह वगेरह…
दरअसल हम आज भी उस समाज में जी रहे है जहां हर सुबह लोगों को पानी की किल्लत का और लगभग हर रात बिजली की फजीहत का सामना करना पड़ता है और ‘विकास’, तो मानो जैसे दूर क्षितिज पर किसी चमकती सी जल धार की तरह सा प्रतीत होता है|
भारत दरअसल अपने आप में कई विसंगतियों का देश है| जहाँ आज भी कई छोटे बड़े शहरों और गावों में कई कई घंटे बिजली की कटौती की जाती हो और देश के नागरिक मूलभूत सुविधाओं के लिए सरकारी तंत्र पर आश्रित हो, ऐसे में मन में प्रश्न उठता है कि क्या वाकई देश को इस समय बुलेट ट्रैन की आवश्यकता है?
आज के परिपेक्ष में यह नितांत आवश्यक तो नहीं अपितु वैश्विक स्तर पर श्रेष्ठता सिद्ध करने का एक प्रयास अवश्य प्रतीत होता है|
यहाँ हमे ‘आवश्यकता’ और ‘चाह’ के बीच के इस अंतर को बड़े ही निकटता से समझना होगा| आज जहां राष्ट्र के समक्ष कई अन्य ज्वलंत समस्याएं पहले से ही मुँह बाहे खड़ी हों, जैसे की खाद्य सुरक्षा, पेय जल पूर्ती, सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा का अधिकार, महिला सशक्तिकरण एवं सुरक्षा और न जाने कितनी अन्य|
ऐसे में ‘आवश्यकताओं’ के विपरीत यदि ‘चाह’ को प्राथमिकता दी जाए तो शायद यह राष्ट्र के उन नागरिकों के प्रति निराशा का भाव उत्पन्न करेगा जो भारत को एक सक्षम एवं समृध्ध राष्ट्र देखने का स्वप्न देखते है|
आज भारत जहाँ एक और परमाणु ऊर्जा सम्पन्न देशों की कतार में अग्रणी और अंतरिक्ष एवं नागरिक उड्डयन के क्षेत्र में स्वावलम्बी प्रतीत होता है तो वहीँ सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि आज भारत में कई ऐसे गांव है जहाँ कटौती तो छोड़िये बिजली ही नहीं पहुँचती है और ना ही उसे उपलब्ध कराने कि कोई समुचित व्यवस्था|
तो ऐसे में क्या यह आवश्यक नहीं कि पहले उन घरो में चिराग जलाये जाए, उजाला किया जाए, किसान जो कि हमारी हरित क्रांति के सूत्रधार है, को निरंतर बिजली उपलब्ध कराइ जाए, उन्हें एक स्वच्छ व रहने योग्य परिवेश प्रदान किया जाये?
यदि विचार किया भी जाये तो तकनीकी रूप से निश्चित ही भारत में बुलेट ट्रैन परियोजना की शुरुआत किसी चुनौती से कम नहीं होगी| जैसे कि उच्च गति ट्रैक्स एवं कोच का निर्माण, भरोसेमंद सिग्नलिंग एवं अचूक सुरक्षा उपकरण इत्यादि|
जहां भारतीय रेल पहले ही अनेक समस्याओं से जूझ रही हो ऐसे में यदि बुलेट ट्रैन की अपेक्षाओं का यह अतिरिक्त बोझ भी देश की इस लाइफलाइन पे डाल दिया जाये तो कही न कही गुणवत्ता में समझौता कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी| और परिणाम, फिर वही, ढाक के तीन पात… आज भी दो ट्रेने कभी कभार एक ही ट्रैक पर मिलने तो आ ही जाती है| बुलेट ट्रैन के मामले में ये मिलाप, घातक विलाप सिद्ध हो सकता है!
यहाँ यह समझने की आवश्यकता है की चीन व जापान जैसे अनेक देश, जहाँ बुलेट ट्रैन प्रतिक है आधुनिकता का, प्रगति का, गति का तो वहीं ये प्रतिक है दरअसल स्वावलम्बन का और उनकी दैनिक आवश्यकता का| यदि बारीकी से विश्लेषण किया जाए तो आप जान पाएंगे की ये उनके दैनिक गतिविधियों का ही एक हिस्सा मात्र है न की किसी दिखावे का|
सप्ताह में दो दिन छुट्टी की कामना करने वाले और ‘सोमवार को काश काम पे न जाना पड़े’ ऐसी सोच रखने वाले देश के नागरिकों के लिए आज बुलेट ट्रैन का मोल जन्मदिन में मिलने वाले किसी महंगे तोहफे से ज्यादा शायद ही कुछ और होगा जहां शायद टॉयलेट में लोटा फिर वहीं चेन से बंधा मिलेगा और दीवारें किसी चित्र कथा के सजीव पन्नों सी|
प्रश्न यहाँ कई है जिनके उत्तर इस परियोजना के सुचारु क्रियान्वयन के लिए नितांत आवश्यक है| जैसे वर्तमान विद्युत् ग्रिड की खस्ताहाल दशा व कटियाबाज़ों से पटी पड़ी खस्ताहाल वितरण व्यवस्था| ऐसे में प्रश्न उठता है की बुलेट ट्रैन जैसी विद्युत् पिपासु के लिए बिजली कहाँ से लाएंगे? एक घर को रोशन करने के लिए दूसरे घरों की बिजली कब तक गुल करते रहेंगे?
ऐसा नहीं की देश को उन्नति का अधिकार नहीं या फिर नई तकनीक से देश को कोई परहेज हो, परन्तु एक ओर जहां जन साधारण के जीवन का एक बड़ा हिस्सा मूलभूत समस्याओं से जूझने और उनसे उबरने में ही निकल जाता हो, ऐसे में एक आम नागरिक की दृष्टी में हजारों करोड़ों रुपयों की लागत वाली बुलेट ट्रैन परियोजना का क्या औचित्य रह जाता है… शायद वैश्विक मंच पर थोपी जाने वाली कोई मजबूरी या फिर सिर्फ वोट बैंक की राजनीती के लिए किसी पार्टी विशेष का चुनावी फितूर?
में समझता हूँ कम से कम ऐसे निर्णय सोच समझ कर व पूर्ण वस्तुस्थिति से अवगत हो कर ही लेने चाहिए बजाय किसी देश के राजनैतिक पर्यटक के साथ बाग़ में पींगे लेकर|
यह देश के सर्वांगीण विकास की दृष्टी से निश्चित ही एक विचारणीय विषय होना चाहिए|
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